गुलजार दिन


गर्मी की छुट्टियों में अब वो छुट्टी वाली बात नहीं
तपती दोपहरी अब ज्यादा तपाने लगी है…
सूनेपन की चादर ओढ़ गर्मी कहीं सुस्ता रही है…
दूर – दूर तक कोई रौनक दिखाई नहीं पड़ता
गर्मी में अब वो गर्मी वाली बात नहीं…

सबके-सब बन्द होते जा रहें हैं
घर या कमरों में
कहीं किसी रिश्तेदार के यहां जाने से भला लगता है
कहीं दूर हिल्स स्टेशन पर घूम आना,
लगता है रिश्तों की गर्माहट भी धीरे धीरे ठंडा पड़ गया
गुम है गुलजार दोपहर से हँसी-ठहाकों की गूँज

काश की समय का पहिया धूमता
हम झाड़ देते कैरम से धूल
निकाल लाते लूडो, चलते घोड़े की ढाई चाल
खेलते आईस-बाइस, सजता महफ़िल, छेड़ते को पुराना सुर
बनता आम रस, कटता तरबूज व खरबूज
बस इतना ही नपा-तुला
एक साधारण दोपहर की चाह है

कहिये!!
आप सबको भी चाहिए ना
गर्मी में ये गर्मी वाली बात

की वातानुकूलित व कूलर में बैठे बैठे ऊब हो रही है…
ओ टी टी के बेब सीरीज भी अब नहीं लुभाते

कोई लाके दे दे मुझे
मेरी गर्मी के छुट्टी वाले दिन की रौनक…!!
कि मैं समेटने लगी हूँ,
यादों के झड़ चुके, पीले पत्तों को..!!

प्रतिभा श्रीवास्तव अंश
भोपाल, मध्यप्रदेश

  • Vikas Gupta

    Managing Editor

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