वृक्षारोपण और पेड़-पौधों का संरक्षण वर्तमान युग की अनिवार्य आवश्यकता बन चुका है, क्योंकि अर्थकेंद्रित विकास ने वन विनाश को जन्म दिया। बढ़ते कंक्रीट के जंगल, जन, जमीन, जानवर, जंगल के प्रति जनमानस के दृष्टिकोण में आ रहे व्यापक बदलाव ने पर्यावरण अवनयन को बढ़ावा दिया है। उपभोक्तावादी प्रवृत्ति और भौतिकतावाद की बढ़ती चाहत में प्रौद्योगिकी से ओत-प्रोत मानव ने स्वयं के समक्ष पर्यावरण संबंधी विविध संकट उत्पन्न कर लिए हैं। आज का प्रौद्योगिकी मानव यह भूलता जा रहा है कि उसका जीवन तभी तक अस्तित्वमान है जब तक पर्यावरण सुरक्षित है, क्योंकि भारतीय धर्म संस्कृति में मनुष्य को जिन पंच तत्वों से निर्मित माना गया है वह प्रकृति के ही तत्व हैं, ऐसे में यदि प्रकृति स्वस्थ नहीं है तो हम मानव के स्वस्थ रहने की कल्पना कैसे कर सकते हैं?
वृक्षारोपण की दर और गति तथा संरक्षण के प्रति लोगों में जागरूकता को बढ़ावा देकर पर्यावरण के स्वास्थ्य को सुधारा जा सकता है। वृक्षारोपण में औषधिय पौधों का रोपण कर जहां हम पृथ्वी की हरीतिमा को बढ़ा सकते हैं, वहीं दूसरी तरफ औषधिय पौधों से प्राप्त कच्चे माल को विश्व के अन्य देशों में आवश्यकतानुसार निर्यात कर भारत की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाया जा सकता है। आयुर्वेद जिसका आविर्भाव ही औषधीय पौधों से हुआ है तथा आयुर्वेद जो प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा और भारतीय चिकित्सा पद्धति का अभिन्न अंग रहा है, जिसका उल्लेख वेद, पुराण से लेकर रामायण, महाभारत तक में हुआ है, उसे आधुनिक तकनीकी के साथ जोड़कर भारतीय आयुर्वेद को विश्व पटल पर एक नए स्वरूप व नए कलेवर में प्रस्तुत किया जा सकता है यह भारतीय ज्ञान परंपरा के साथ-साथ स्वस्थ पर्यावरणीय विकास तथा जैव विविधता दोनों का संरक्षण होगा।
‘एक पेड़ मां के नाम’ जैसे अभियानों के प्रति जन जागरूकता और इसके प्रति संवेदना का भाव उत्पन्न कर वृक्षारोपण की दर को बढ़ाया जा सकता है तथा लगाएं गए पौधों को संरक्षण प्रदान किया जा सकता है, क्योंकि प्रकृति के साथ सद्भाव भारतीय संस्कृति के मूल में रहा है। भारतीय ज्ञान परंपरा में पशु, पक्षी, जीव -जंतु, पेड़-पौधों के प्रति शुभ भाव रहे हैं। भारतीय संस्कृति में प्रकृति को पूज्यनीय मानते हुए प्रकृति के प्रति प्रेम, सम्मान का शुभ भाव जैव विविधता को बनाए रखने तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में सहायक रहा है। भारतीय ज्ञान परंपरा और संस्कृति में प्रकृति के विविध स्वरूपों जल, वायु, पृथ्वी, चंद्रमा सूर्य, पेड़ पौधों को पवित्र मानते हुए उनकी पूजा अर्चना की जाती रही है जो कहीं न कहीं स्थानीय स्तर से लेकर वृहद स्तर तक प्रकृति हितैषी भावों तथा प्रकृति के प्रति शुभ विचारों को रेखांकित कर अंततः जैव विविधता को बनाए रखने में सहायक है। जैव विविधता जहां एक तरफ सतत्, समावेशी तथा टिकाऊ विकास को बनाए रखने के लिए आवश्यक संसाधन प्रदान करती है, वहीं दूसरी तरफ जैव विविधता से परिपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र में ही हमारा अस्तित्व संभव है।
यदि भारत 2047 तक विकसित भारत बनने की तरफ तेजी से अग्रसर है, तो इस विकास प्रक्रिया में ग्रीन एनर्जी एक आवश्यक संचालक शक्ति के रूप में होगा। इसके लिए कार्बन क्रेडिट , वृक्षारोपण, जल प्रबंधन, जैविक कृषि, वायु प्रदूषण में कमी, कचरे का उचित निपटान, मैंग्रोव वनों को संरक्षण और अंततः हरित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना होगा। सतत् विकास के लक्ष्य संख्या 15 को हम तभी प्राप्त कर पाएंगे जब प्रकृति के साथ हमारे आप के संपूर्ण विश्व के भाव शुभ और पर्यावरण हितैषी हो। जैव विविधता को बनाए रखना तथा पर्यावरणीय तत्वों को सुरक्षित रखना हम अपनी नैतिक जिम्मेदारी के साथ-साथ परम कर्तव्य समझे। हमारे प्रयासों में सत्यता हो, प्रकृति के साथ समरसता का भाव हो, और विचार शुभ हो तो निश्चित रूप से हम विकास, करते हुए विकसित भारत के लक्ष्य को प्राप्त करेंगे तथा पेड़-पौधों को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान कर जैव विविधता को बढ़ाने के साथ-साथ स्वस्थ और हरित पर्यावरण के विकास में योगदान कर पाएंगे।

असिस्टेंट प्रोफेसर (समाजशास्त्र विभाग)
रमाबाई राजकीय महिला पीजी कॉलेज, अकबरपुर, अंबेडकरनगर